Saturday, June 22, 2019

दावों की हक़ीक़त का परिणाम त्रासदी


बिहार में पिछले 20-25 दिनों से जारी बच्चों की चमकी बुखार(एक्यूट इनसेफलाइटिस सिन्ड्रोम,एईएस) से मौत के सिलसिले ने बरबस झकझोर कर रख दिया है. मुज़फ्फरपुर, वैशाली जैसे जिलों में आये दिन त्रासद खबरें सामने आ रही हैं. वैशाली जिले के एक गांव में सात बच्चों की मौत हो गयी. केन्द्र से डाक्टर और पैरामेडिक्स टीम भेजने का भी फैसला तब लिया गया जब मामला काफी बिगड़ चुका था. माननीय मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी तब दौरा किया जब तकरीब 10-12 दिन बीत चुके थे. राज्य और केन्द्र के स्वास्थ्य मंत्रियों का रवैया संतोषजनक नहीं ही दिखा.
पहले तो प्रभावितों और उनके अभिभावकों को उपदेश की घुट्टी पिलायी गयी कि बच्चे रात में भूखे पेट सो जाते हैं. जहां-तहां जमीन पर गिरी लीचियां खा लेते हैं. अब सवाल उठता है कि गरीबी की मार झेल रहे लोग आखिर करें तो क्या करें. सरकारी दावों का तो अन्त नहीं है. दावों की हक़ीक़त ऐसी त्रासदी के रूप में सामने आ रहा है.
जब यह सिलसिला रफ्तार पकड़ चुका था तब मीडिया वालों की नींद खुली. उन्होंने डाक्टरों की खिंचाई(?) शुरू कर दी. यहां तक कि काम में लगे डाक्टरों को भी जलील करने में कोई कसर न छोड़ी. अगर मीडिया वाले इतने ही संजीदा हैं तो ऐसी स्थिति के मूल कारणों पर प्रकाश डालना लाजिमी नहीं था. अब सरकार उन्हें लापरवाही के आरोप में सस्पेंड कर रही है.
ऐसी तमाम कार्रवाइयों से पहले केन्द्र और राज्य सरकारों को व्याप्त लालफीताशाही को दूर करना होगा. इस आपदा को लेकर क्या सरकार और व्यवस्था ने पर्याप्त सजगता दिखायी? आखिर कब तक अपनी गलती दूसरों पर थोपकर उन्हें बलि का बकरा बनाया जाता रहेगा?

Saturday, June 15, 2019

Doctors’ Protest-A Major Challenge

Fatal attacks on doctors are not the only root cause of the medicos’ stir. Sparked in West Bengal, spread across the country in a fraction of time, the stir reminds about the lack in health care system. Besides, even the private doctors have joined the protest. The spread of stir nationally can’t be taken casually. Though, there are few photos circulated in social media showing doctors are checking the patients despite resignations. How shouldn’t it be applauded? As far as medical care is concerned, the doctors are the target within reach. So, they have to bear the brunt of any people connected with the patients/victims. But the question is: Are they sole responsible?
Doctors from All India Institute of Medical Sciences (AIIMS) and Safdurjung Hospital, the prominent hospitals in Delhi, joining the protest indeed reflects its gravity. Besides, doctors from Mumbai, Chandigarh, Jammu & Kashmir hospitals have expressed their solidarity. The attitude of CM Mamata Banerjee is criticized by prominent personalities. Mamata’s audacious attitude has irked most of the doctors fraternity. While Ms Banerjee says that is a conspiracy of Bharatiya Janata Party(BJP) and a plot of outsider as well. When Calcutta High Court refused to intervene, then CM began making calls for negotiations.   
However, the news concerning clash between doctors and people mostly have places in the media. It is quite natural that whose patient suffers or dies will be agitated. On the other hand, the medicos do try to save the ailing patients, but what would they do if there is lack of resources.
In the meantime, AIIMS has delivered a statement to meet the demands within 48 hours, otherwise the stir would intensify. Issuing this warning, doctors are expressing their determination for their protest. Medical system would definitely collapsed if it is not looked in within time-frame. They even warned of withdrawal of whole non-essential health services from 17 June.
It is learnt that 73% of the total population of India live in the rural areas, while 26.1 % of them are below poverty line. There is huge lack of healthcare infrastructure in the prevailing system. Several major weaknesses appear as deterrant. However, funding allocated on national level which is 4.1 % of GDP,which is comparatively high. On the other hand, government funding is   low to 1% in comparison to other emerging nations. Hence, the present plight makes the situation grim and the mass pass away without medical care.
In this context, the private health sectors are thriving day-by-day. The maximum part of health care system in our country is dominated by private sectors. Significantly, 70% of the total delivery market delivered in India by private sectors. It evidently shows that the healthcare has gone far from the commoners. Like this, they can avail the medical facilities who have opulent wealth. Though, a super speciality hospital Gujarat Adani Institute of Medical Sciences has been established. However, it claims to provide medical facilities even to the common people. If it is, then there must be at least 50 more such hospitals in a vast nation like India.
In addition,there are several other reasons for unrest. One of the significant reasons is the centre-state relation-stern or cordial. However, if the governments in the centre and the state are of same fold, then there is doubt of status quo. If the governments of different folds are in centre and state then there is a fair chance of tussle. Ultimately, people are the sufferers.   

Tuesday, June 11, 2019

Power-Family To Person

The power remains the same with attitudes, positive or negative. The only difference is that it is transferred from one family to one person. The same actions and reactions are present in the respective places. The opposition is in a negligible state. Almost futile. Talking about tolerance but acts with intolerance. Journos from Uttar Pradesh were charged for posting about CM Yogi Adityanath. BJP activist was put behind the bars for sharing West Bengal CM Mamata Bannerjee's meme. In past Congress regime the situation was more or less the same. Those who went upstream, were harassed, charged. Then how can it be said the situation has changed now. Nothing different is seen till now. As said-morning shows the day-it is more or less assumed what would be the next scene/approach. Anyway, hope for the best 

Monday, June 10, 2019

बंदिश लगे डॉक्टरों की निजी प्रैक्टिस पर


साल-दर-साल देश में लाखों डॉक्टर बैचेलर ऑफ मेडिसीन एंड बैचेलर ऑफ सर्जरी(एमबीबीएस) की डिग्री लेकर सामने आ रहे हैं. हालांकि, ये डॉक्टर सरकारी नौकरी में तो हैं मगर वे पूरे मन से नौकरी के लिए समर्पित नहीं दिखते. उनमें से ज़्यादातर का ध्यान निजी प्रैक्टिस पर ही केन्द्रित होता है. मेडिकल कॉलेजों में पढ़ाई की अगर बात की जाय तो वहां भी शिक्षकों का अभाव ही दिखता है. एक तो इन्फ्रास्ट्रक्चर का अभाव, साथ ही पर्याप्त स्वास्थ्य संबंधी पढ़ाई के लिए विभागों की कमी. कभी-कभार ही दो-एक क्लास लेकर डॉक्टर चले जाते हैं. इसे मनमानी ही कह लें.
अगर डॉकटरी की डिग्री मिलते समय ही उन्हें एक निश्चित समयावधि तक सरकारी नौकरी के लिए अनिवार्य रूप से अनुबंधित कर लिया जाय तो इसके सकारात्मक परिणाम मिल सकते हैं. दिये गये समयावधि तक नौकरी करने की अनिवार्यता से बचने की कोई गुंजाइश न छोड़ी जाये. हालांकि इसके विरोध में भी तमाम डॉक्टर्स आंदोलन करेंगे. पहले भी करते आये हैं. इसके लिए सरकार को भी दृढ़ निश्चय के साथ कदम उठाना होगा. आखिर कब तक आंदोलन करेंगे?
मगर हां, इसके लिए सरकार को भी ऐसी व्यवस्था करनी होगी कि डॉक्टर्स को वे तमाम सुविधायें मुहैया करानी होंगी जिसकी कमी से वे निजी प्रैक्टिस का रुख करते हैं. जाहिर है सब उसे वेतन, भत्ता और तमाम सुविधायें मिलेंगी तब तो डॉक्टर्स को क्योंकर कोई दिक्कत होगी. इसके बावजूद अगर वे ऐसा कदम उठाते हैं तो इसके लिए दंडात्मक प्रावधान भी ज़रूर होने चाहिए.
    
     


पुराने मेडिकल कॉलेजों को पहले करें सुव्यवस्थित


देश में आये दिन नये-नये मेडिकल कॉलेज शुरू किये जा रहे हैं और इस संबंधी घोषणायें भी हो रही हैं. हालांकि इसे एक सकारात्मक कदम ही कहा जा सकता है. मेडिकल कॉलेज एवं अस्पताल खोले जाने का लक्ष्य तो यही हो सकता है कि ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को स्वास्थ्य सुविधायें मुहैया करायी जायें. इसके साथ ही एक सवाल स्वतः उठता है कि पहले से चल रहे मेडिकल कॉलेज एवं अस्पतालों में सारी ज़रूरी सुविधायें उपलब्ध हैं. हक़ीक़त में तो ऐसा नहीं दिख रहा है. बिहार राज्य के ही तमाम मेडिकल कॉलेजों पर गौर किया जाये:
-क्या सभी कॉलेजों में पर्याप्त शिक्षक उपलब्ध हैं?
-क्या सभी कॉलेजों में स्वास्थ्य संबंधी सभी विभाग सक्रिय हैं
?
-क्या वहां नियमित कक्षायें ली जा रही हैं
?
तमाम शहरों के मेडिकल कॉलेज अस्पतालों में अराजकता का माहौल है. मरीजों को समुचित इलाज तक नहीं मिल पाता. डॉक्टर्स भी बस अस्पताल में राउंड लगाने भर को ही ड्यूटी मानते हैं. राउंड लगाया और चंद मरीज देखे-बस हो गयी ड्यूटी. इस सोच से मरीजों का क्या भला हो सकता है, शायद बताने की ज़रूरत नहीं.
वास्तविकता की कसौटी पर तो सभी प्रश्नों पर सवाल रह ही जाते हैं. नये मेडिकल कॉलेज भी आखिरकार सरकार के लिए सिरदर्द के सिवा और कुछ नहीं साबित होंगे. लिहाजा, नये कॉलेज खोलने से क्या सभी समस्यायें सुलझ जायेंगी? शायद नहीं. तो मौजूदा मेडिकल कॉलेजों को ही पहले सुव्यवस्थित क्यों नहीं किया जाये. इसे दुरुस्त करने के बाद ही कोई नया प्रोजेक्ट पर विचार किया जाये.

Saturday, June 8, 2019

That’s All

I was amused of my recent meeting with a celebrity. Asked him that how he leads his life alone and deal with fanfare. His abrupt reply seemed to be mesmerising. I get befriend with the kitchen, bedroom and obviously toilet and have no time for the extras. A large peg to every fan. That’s all. 

And She Got Away


Going through a park in sullen mood, sat on a bench beneath one of the trees. While inhaling the soothing breeze, saw someone came and sat beside me. How do you value the life? All of a sudden it hit my ears. I replied casually-‘As it comes.’ She stood with a shrug and got away.

पानी के लिए हाय-हाय


दिल्लीमध्य प्रदेशतमिल नाडूकर्नाटक...तमाम जगहों में हाय पानी!’ हाय पानी!’ मची है. कहीं लोग बाल्टी तो कहीं कैन लिये दौड़ रहे हैं. मध्य प्रदेश के शहर में तो पुलिस का पहरा तक लगा दिया गया है. कोई भी आपदा आयेआरोप आम’ लोगों पर मढ़ दिया जाता है. ऐसा नहीं कि वे जिम्मेदार नहीं होते. होते हैं मगर वही सरासर जिम्मेदार नहीं होते. ‘खास’ लोग भी जिम्मेदार होते. यों कहें कि बराबर के जिम्मेदार होते हैं. उनकी चमचमाती गाड़ियों की चमककोठी के सामने वाले लॉन की हरियाली बरकरार रखने के लिए कितने ही क्यूसेक पानी की बलि चढ़ा दी जाती है. सड़कों के किनारे वॉटर सप्लाई की टोंटी-विहीन पाइप से पानी की सतत बहती धार का दृश्य तो आम है. एक कहावत है: चोर के सामने ताला क्याबेईमान के सामने केवाला क्या.  ‘केवाला’ ज़मीन की खरीद-बिक्री संबंधी एक दस्तावेज़ होता है. अपना क्या जाता है” सोच ने हमलोगों को भी ग्रस लिया है. यह भी नहीं लगता कि अपनी “माल-ए-मुफ्त दिल-ए-बेरहम” की सोच एक दिन हमें कहां ले जायेगी. कतई ताज्जूब नहीं होना चाहिए कि कुछ जगहों का यह नज़ारा पूरे मुल्क का मंज़र बन जाये.

...क्यों पड़ गये बीच में?

इसे एक मज़ाक़ कहें या आघात- जब कोई दो लोगों के बीच कोई तीखी बहस हो रही हो और तीसरा उस बहस को सुलझाने की पहल करता है. अक्सर सुनने को मिलता है कि इसमें आपके पड़ने की दरकार तो नहीं थी. ठीक है भई, अब ख्याल रखेंगे. वहीं, जब आपकी किसी के साथ बातचीत या बहस हो रही हो तो कोई तीसरा उसमें सहज ही दखल देने लगता है. इस सूरत में कोई भी यह सोचने के लिए बाध्य तो होगा ही कि यह क्या गड़बड़झाला है. लब्बोलुबाब यही है आपके मामले में कोई भी दखल दे सकता है मगर आप किसी के मामले में नहीं. आखिर इस ज़िन्दगी के लिए तो यही कहा जा सकता है- बहुत कठिन है डगर पनघट की.

Thursday, June 6, 2019

अगर मुल्क का एहतराम....

अगर मुल्क का एहतराम करते,
इस कदर नाम बदनाम न करते।
अम्नोमुहब्बत का पैगाम दिया है,
रहीम को भी इसने ही राम दिया है।
बांटने का ऐसा कोई काम न करते।...अगर मुल्क का
कब तलक चलेगी नफरत की आंधी,
ज़र्रे-ज़र्रे में समाये सुभाष और गांधी।
सही सोचने को किसी ने ज्ञान दिया है।...अगर मुल्क का
अगर मुल्क का एहतराम करते,
इस कदर नाम बदनाम न करते।

Wednesday, June 5, 2019

হারান সুর

হারান সুর আর খূঁজে পাই না,
সেই ছাড়া আর কিছু চাই না।
অন্তরে উঠে যেন ভাবনার ঝড়,
বিকল মন কে বোঝান যাই না।
বারে-বারে কেন মনে আসে তার,
কারণ যেন আর বুঝিতে পাই না।
কেন সেই চলে আসে নীরব মনে,
হাজার যত্ন করেও পারা যাই না।
আর কোন চাহিদা নাই গো মনে,
দোর আর হৃদয়ের খোলা যাই না।

Tuesday, June 4, 2019

Criticism Without Introspection

It has become usual to criticise others for their attitudes and actions. Most of us abruptly decry them even without introspecting self. If it is pondered and analysed properly, it might be resolved amicably. One day one of my relatives severely criticised someone. The subject was more or less the same he could be connected with. When I pointed that, he began to mend and mould it, by any means. I didn't say a word and just smiled, thinking about the attitudes and thinking of the people.

Saturday, June 1, 2019

अपने अंदाज़ में मोदी की वजीफा बढ़ाने की घोषणा


गत 30 मई को शपथ लेने के बाद ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री छात्रवृत्ति योजना में परिवर्तन करने के अलावा दी जाने वाली राशि में बढ़ोतरी को पहली मंजूरी दी. इसमें अब प्रदेश पुलिस को भी शामिल किया गया है. राष्ट्रीय रक्षा निधि(एनडीएफ) के तहत लड़कियों को दी जाने वाली वजीफा राशि 2,250 रुपये से बढ़ाकर 3000 रुपये तथा लड़कों के लिए 2000 से 2500 रुपये करने की घोषणा की. इस घोषणा को मोदी ने समर्पित करने का नाम दिया जो उनके अंदाज़ को बखूबी बयान करती है. 



उन्होंने अपने ट्वीट में कहा कि उनकी सरकार का पहला फैसला भारत की रक्षा करने वालों को समर्पित है. इसमें उग्रवाद प्रभावित राज्यों के पुलिस बलों के आश्रितों को भी इसके दायरे में लाया गया है. इसके तहत नक्सलवादी हमले में शहीद हुए पुलिस अधिकारियों-कर्मचारियों के परिवारों को भी शामिल किया गया है.राज्य पुलिस बलों के परिजनों के लिए यह राशि पांच सौ रुपये सालाना होगी.      

वर्ष 1962 में गठित राष्ट्रीय रक्षा कोष के ज़रिये प्राप्त राशि का उपयोग मारे गये सशस्त्र पुलिस केन्द्रीय और रेल सुरक्षा बलों के आश्रितों को उच्च शिक्षा मुहैया कराने के लिए किया जाता है.

Friday, May 31, 2019

फीस संबंधी नियमों पर अमल भी या नहीं?


मोदी सरकार 2.0 की शिक्षा क्षेत्र में चन्द आवश्यक परिवर्तन करने की पहल निश्चय ही स्वागतयोग्य है. हालांकि इस संबंध में मोदी सरकार द्वारा वर्ष 2017 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत गठित विशेषज्ञों की एक समिति ने निजी स्कूलों की फीस राशि को भी नियंत्रित और प्रासंगिक करने का सुझाव दिया है. वैसे तो यह एक दुरुस्त कदम है. निजी स्कूलों की मनमानी से अधिकांश लोग त्रस्त हैं. हर साल फीस बढ़ाने-कभी विकास शुल्क तो कभी समग्र विकास के नाम पर-से मध्यम वर्ग का जीना मुहाल हो गया है. साथ ही यह भी देखना होगा कि इस नियमन पर कैसे और कहां तक अमल हो रहा है. ऐसा देखा गया है कि सरकार ने तो नियम पारित कर दिये और उन पर स्कूलों द्वारा न के बराबर अमल किया जा रहा है. पिछले दिनों मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा विद्यार्थियों के स्कूल बैग के वज़न के लिए भी मानक तय किये थे. फिर भी अधिकांश स्कूलों के विद्यार्थियों को भारी बैग ढोते देखा जाता है.

भेदभाव से परे हो मातृभाषा की पढ़ाई

मोदी सरकार 2.0 की शिक्षा क्षेत्र में चन्द आवश्यक परिवर्तन करने की पहल निश्चय ही स्वागतयोग्य है. हालांकि इस संबंध में मोदी सरकार द्वारा वर्ष 2017 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत गठित विशेषज्ञों की एक समिति ने प्राइमरी कक्षाओं से ही मातृभाषा की पढ़ाई का सुझाव दिया है. प्राइमरी कक्षाओं से ही मातृभाषा की पढ़ाई एक अच्छा कदम है. इस पहल से फूट-बिखराव का बीजारोपण न हो जाये- इसके लिए सतर्क रहना होगा. इसे पूरी तरह से राजनीति-मुक्त होना होगा तभी यह कोई सकारात्मक परिणाम देगा. ऐसा इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि यह विद्यार्थियों के भविष्य निर्माण का सवाल है जो पूरी तरह निर्दोष होना चाहिए.

Tuesday, May 28, 2019

नफरत नहीं मुहब्बत की ख्वाहिश
हर जानिब हो तो दोस्ती की बारिश
अदावत न देती पूरसुकून जिन्दगी
जिस्म में जैसे पैदा होती है खारिश
दूर जाना  वाकई कोई कमाल नहीं
गले मिलना जिन्दगी की नवाज़िश
क्या कमी आखिर इस कायनात में
मोहाज़िर की फकत यही गुज़ारिश

Acid Attack Costs Girl's Life


Ultimately, the acid attack victim, who had passed plus two, breathed her last after a 38-day struggle for life. The victim hailed from Bhagalpur (Bihar). However, the local administration claims that the statements of the victim’s family are contradicting. Like who captured her, who threw acid and else. But isn’t it the fact that the crime took place. When the convicts are being named then there is truth.
By all means, acid attack is one of the horrific faces of the gender-based crime. Injuring the body, it shatters the victim’s personality and damages the confidence in abundance as well. This incident reflects that in which direction the current generation is advancing. Though there are several major factors influencing the youth. The mindset of most of the youth has become extremely precarious.
The cyber age and several horrific video games are obviously responsible for such crimes. But increasing intolerance and ego has taken the youth in the grip. In fact, they don’t even think twice to damage themselves too.  In one of such cases one convict was awarded death sentence for throwing sulphuric acid on Preeti Rathi , who unfortunately succumbed to injury.
It is said that 350 cases of acid attack are registered in India every year, whereas according to the research conducted by Acid Survivors Foundation the figure mounts upto 500-1000 per year. However, many of such cases remain unnoticed, because the cases are not registered. The reluctance of victims’ family might be one of the reasons.

Wednesday, May 22, 2019

किताबों-वजीफों से महरूम विद्यार्थी

जब कोई विद्यार्थी एक कक्षा पास कर अगली कक्षा में प्रवेश करता है तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता है. लाजिमी भी हैं. आज के बुजुर्गों को भी उनके जीवन के उस पड़ाव खुशी का अहसास हुआ होगा. अब तो सरकारी स्कूलों में आलम यह है कि  कक्षा की पढ़ाई शुरू होने के चार-पांच माह तक भी कोई एक-दो किताबें विद्यार्थियों को नहीं मिलती हैं. इस सूरत में वह कैसे पढ़ेगा, इसकी भी परवाह स्कूल और शिक्षकों को नहीं ही होती है. पूछने पर टका-सा जवाब भी तैयार रहता है कि  आने पर मिल जायेगी और  हम क्या कर सकते हैं.’ सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति (वजीफा) भी दी जाती है. 
जाहिर हैं हर हाल में नुकसान तो विद्यार्थी का ही होता है. हालांकि राज्य सरकार ने छात्राओं को साइकिलें भी दी है. अब सवाल उठता है कि किताबें इतने दिनों तक क्यों नहीं मिलतीं. किताबें मिलती तो हैं मगर स्कूल प्रबंधन की कारस्तानी सिरे नहीं चढ़ पाती. यही कह सकते हैं. तभी तो इतने लंबे समय तक किताबें नहीं मिल पातीं. आये दिन खबरें मिलती हैं कि सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों को कई महीनों से वजीफे की राशि नहीं मिली है.
हालांकि सरकारी खजाने से तो राशि निर्गत तो हो जाती है मगर विद्यार्थियों तक नहीं पहुंच पाती.  इस बाबत स्कूल प्रधान को समय-समय पर नोटिस भी जारी किये गये हैं. अब सीधा-सीधा सवाल उठता है कि निकास की गयी राशि आखिर जाती कहां है जो जरूरतमंदों को नहीं मिल पाती.
अगर यही अनियमितता जारी रही तब तो विद्यार्थियों को इसका लाभ मिलने से रहा. लिहाजा, स्कूलों की गतिविधियों के लिए विशेष रूप से किसी सरकारी मुलाजिम को प्रतिनियुक्त किया जाये. जो समय-समय पर स्कूलों के बारे में रिपोर्ट करता रहे.  

ज़िन्दा होने का अहसास

जेठ की भरी दोपहरी में जब जिस्म
से टकराती हैं अंगारे उगलती हवायें
तो ज़िन्दा होने का अहसास होता है।
वैसे तो दुनिया के हर एक मोड़ पर
मिलने वाले लगते ढो रहे ज़िन्दगी
दिल खोखला रेशमी लिबास होता है।
यूं तो ओढ़े रहते कमोवेश हर लोग
अपने चेहरे पर दो इंच की मुस्कान
हक़ीक़त भांप लेता जो खास होता है।
कह भी तो न सकते सबसे हालेदिल
जाने क्या हो सामने वाले के मन में
ताड़ लेता है जो दिल के पास होता है।

Monday, May 20, 2019

खतरनाक है अन्यमनस्क होने का भाव

जब भी कोई पहल करते हैं तो अधिकांशतः अन्यमनस्क भाव का ही सामना करना पड़ता है. एक-दो बार तो क्या अक्सर ऐसी स्थिति सामने आती है. तो क्या करना चाहिए? तो क्या कुछ भी नहीं कहना या करना चाहिए? आत्ममंथन के साथ-साथ मानसिक मंथन भी किया. सवाल यह उठता है कि क्या इस स्थिति को बदला नहीं जा सकता है. शायद नहीं, क्योंकि अगर बदलना होता तो चार-पांच बार में ही कोई सकारात्मक परिणाम सामने आ जाता. ऐसा नहीं कि कोई परिणाम सामने नहीं आया. आया, ज़रूर आया. वह विरोधी, नकारात्मक भी कह सकते हैं, परिणाम ही सिद्ध हुआ. कहते हैं कि पुरानी आदत, अभ्यास तुरन्त बदले नहीं जा सकते. सही है. इस तर्क के साथ ही एक सवाल यह भी सहज ही उभरता है कि किसी भी पहल को गंभीरता से लिया गया या नहीं. गंभीरता-इस एक शब्द पर अगर ग़ौर किया जाये तो पहली बार में ही स्थिति बदल सकती है.

विद्यार्थी सामान्य स्थिति में रहें न कि खौफज़दा

ज़्यादातर स्कूलों में विद्यार्थियों को सामान्यतः दो भागों में बांट दिया जाता है-एक तो सामान्य और दूसरा तेज़. इसी धारणा के साये में नर्सरी से लेकर दसवीं कक्षा तक के विद्यार्थियों की शिक्षा-दीक्षा होती है. हालांकि यह एक धारणा-मात्र है सच की कसौटी पर परखा हुआ कोई तथ्य नहीं. किस बच्चे में क्या क्षमता है इसका मूल्यांकन विरले ही होता है. इस बात की परख करने में शिक्षकों की भूमिका बढ़ जाती है. ऐसा नहीं है कि बच्चे मंदबुद्धि होते हैं. सभी बच्चों में कुछ न कुछ सकारात्मक पक्ष भी होता है जिसे तराश कर उभारने की ज़रूरत होती है. कोई पढ़ने में तो कोई खेलने में, कोई चित्रकला में तो कोई क्राफ्टवर्क में. सिर्फ धारणा बना लेने से स्कूल पक्ष के दायित्व पूरे नहीं हो जाते. यह एक ध्रुव सत्य है कि स्कूल के माहौल और शिक्षक का असर विद्यार्थियों पर पड़ता ही है.  
हालांकि यह सही है कि कोई बच्चा मुखर होता तो कोई अंतर्मुखी. मुखर बच्चे की गतिविधियों से उसके रुझान और योग्यता का सहज ही पता चल जाता है. वहीं अंतर्मुखी बच्चे को समझ पाना सहज नहीं है. उसे समझने के लिए उद्यम करना पड़ता है. स्कूल में शिक्षक तो यही सुझाव दे जाते हैं कि घर में बच्चों पर ध्यान देना ज़रूरी होता है क्योंकि बच्चा अधिकाश समय अपने घर पर ही बिताता है जबकि स्कूल में चन्द घंटे. स्कूलों में बच्चों द्वारा बिताये गये चन्द घंटे ही सुनहरा साबित होते हैं. आज की तारीख में बच्चों को पहली कक्षा से ही अतिरिक्त ट्यूशन देने की ज़रूरत आन पड़ती है जबकि तीन-चार दशक पहले तक तो सातवीं-आठवीं कक्षा के विद्यार्थियों को ट्यूशन नहीं के बराबर दी जाती थी. इस बिन्दू पर ध्यान देने की ज़रूरत है जबकि प्रायः इसकी अनदेखी कर दी जाती है.
आजकल 90-95 प्रतिशत अंक के साथ परीक्षा परिणाम आते हैं. अगर चार-पांच दशक पहले की बातें करें तो 60-70 प्रतिशत अंक पाने वालों को समाज पलकों पर बिठा लेता था. पहले के विद्यार्थी जहां खुद को हल्का महसूस करते थे, वहीं आज के बच्चे एक अदृश्य भार और चिन्ता से दबे रहते हैं. शुरू से ही उनमें यह भाव भर दिया जाता है कि ज़्यादा से ज़्यादा अंक लाने ज़रूरी है अन्यथा आगे की पढ़ाई नहीं कर सकेंगे- गलाकाट प्रतियोगिता का ज़माना है. इसके साथ ही बच्चों के मन में विकार की उत्पत्ति शुरू हो जाती है जो पन्द्रह-सोलह साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते नासूर बन जाता है. आजकल तो परीक्षा के नतीजे आने के साथ-साथ खुदकुशी की खबरें भी आम हो गयी हैं. लिहाजा परिणाम आने के समय अधिकांश अभिभावक आतंकित होने लगते हैं-पता नहीं कैसा नतीजा आये और बच्चे क्या कर जायें.
रही शिक्षा व्यवस्था की बात, तो इस पर सिलसिलेवार प्रयोग ही होते आ रहे हैं. कभी एक पैटर्न तो कभी दूसरा. हर क्षेत्र में सियासत की पैठ होने से शिक्षा व्यवस्था का माहौल भी जैसे अराजक हो गया है. स्थायित्व एवं गुणात्मकता का नितान्त अभाव-सा हो गया है. वैसे तो पांचवीं कक्षा का कोई विद्यार्थी कम्प्यूटर और इंटरनेट सर्फ करने में लगभग माहिर हो गया है. ज़ाहिर है समय के अनुसार परिवर्तन भी होता है. वहीं, क्लास में कोई सवाल पूछने पर शिक्षक का यह जवाब कि इंटरनेट में देख लेना कहां तक उचित है. बच्चा स्कूल जाता है, स्कूल में कक्षा में पढ़ता है तो वह शिक्षक से ही सवाल करेगा न. उसकी समस्या का समाधान शिक्षक को देना चाहिए या इंटरनेट को. सरकारी स्कूलों की उचित देखरेख न होने से वे दिन-ब-दिन बदहाल होते जा रहे हैं और निजी स्कूलों की बन आयी है. यह भी शोचनीय विषय है.
बहरहाल, शिक्षा ऐसी तो होनी ही चाहिए जो विद्यार्थी को सामान्य स्थिति में बनाये रखे न कि उसे खौफज़दा कर दे.   

Monday, May 13, 2019

क्या हुआ स्कूल बैग के वज़न का?

पिछले दिनों मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा स्कूल के विद्यार्थियों के संबंध में निर्देश जारी किये थे. उनके स्कूल बैग के वज़न से संबंधित थे. तकरीबन छह-सात माह पहले ये निर्देश किये गये थे. इतने दिनों के अंतराल में इस पर एक सरसरी निगाह डालें कि इन निर्देशों पर कितना अमल हुआ या नहीं हुआ, तो कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए.
मंत्रालय द्वारा जारी निर्देश में कहा गया था कि पहली व दूसरी कक्षा के विद्यार्थियों के स्कूल बैग का वज़न 1.5 किलो से अधिक नहीं होना चाहिए. वहीं तीसरी से पांचवीं जमात के बैग का वज़न दो से तीन किलो, छठी व सातवीं के लिए 4 किलो, आठवीं व नौवीं कक्षा के लिए 4.5 किलो और दसवीं कक्षा के लिए बैग का वज़न 5 किलो से ज्यादा नहीं होना प्रस्तावित था. जिस दिन जिन विषयों की पढ़ाई होनी है उससे संबंधित ही किताबें-कॉपियां लाने को कहा गया था.
आज की तारीख में हक़ीक़त कुछ और ही बयान करता है. पहली से दसवीं कक्षा तक के स्कूल बैग का मंत्रालय द्वारा प्रस्तावित सीमा से कहीं अधिक है. पांचवीं-छठी कक्षा के विद्यार्थियों के स्कूल बैग का वज़न करीब छह किलो से कम तो नहीं होंगे. सूरतेहाल यह है कि आज भी अधिकांश शहरों के स्कूलों में स्थिति वही है. विद्यार्थी बैग के बोझ तले दबे जा रहे हैं.
उसपर स्कूल यानी टीचर्स की तरफ से विद्यार्थियों को हर विषय के लिए हैंड राइटिंग की एक-एक कॉपी रखने का फरमान जारी किया गया है. माना कि पांचवीं तक के विद्यार्थियों के लिए हैंड राइटिंग ज़रूरी है. अब तो वह भी नहीं होना चाहिए क्योंकि पहली कक्षा में आने से पहले विद्यार्थियों को नर्सरी, एलकेजी और यूकेजी की कक्षाएं पास करनी होती है. हद तो तब है कि दसवीं तक के विद्यार्थियों को भी हैंड राइटिंग के लिए कॉपी बनाने के लिए कहा गया है. क्या इस निर्देश को व्यावहारिक कहा जा सकता है?

Sunday, May 5, 2019

“अख़बार” और “अफ़वाह”


सेन्ट्ल बोर्ड ऑफ सेकेन्डरी एजुकेशन(सीबीएसई) दसवीं की परीक्षा के परिणाम आने की संभावना की खबर के बाद ही दूसरी खबर से उसे फेक न्यूज़ कहकर सिरे से खारिज कर दिया.वाकई कमाल है. दोनों खबरें सीबीएसई प्रवक्ता रमा शर्मा के हवाले से बतायी गयीं. यह देख-पढ़कर बचपन के दिन आ गये. जब दोस्तों-हमउम्रों में जब कोई नयी जानकारी साझा करते थे तो उसे मानने के लिए कोई तैयार नहीं होता. एक लम्बी या कहें अन्तहीन बहस छिड़ जाती थी. फिर तो वह बात माता-पिता या बड़ों की अदालत में पहुंच जाती थी. इनके अलावा भी ज़रिया होता था जो बेपनाह भरोसा का हक़दार था, वह था-अखबार.जब किसी भी तरह बात बनती न दिखती थी तो अख़बार को सामने कर देते थे. ब्रेकिंग न्यूज़ के इस दौर में कभी-कभी तो ख़बरों का यह ज़रिया मखौल का सामान बन कर रह जाता है. लिहाज़ा इस मज़बूत ज़रिये को और भी यकीनी बनाने की जानिब कोशिश करने की ज़रूरत है. भरोसे की कसौटी पर कसकर ही खबरें परोसी जायें तभी इसकी प्रासंगिकता बनी रह सकती है, अख़बार और अफ़वाहमें फर्क ही क्या रह जायेगा. मीडिया जगत के सरपरस्तों को इस जानिब सोचना और समझना भी होगा.    


Friday, May 3, 2019

Prejudice and Partiality

It is a hard fact that while conferring the individuals national awards for their contributions to the nation, in any field, the governments miss the wit. An argument has surfaced in connection of awarding ATS chief Hemant Karkare-whether or not. It would be quite silly to oppose the decision abruptly, But it is undeniable that that the successive governments couldn't rise above prejudice and partiality in this regard. The same perception related to 'camp' arises which undoubtedly demeans the awards' importance. It needs to be well analysed and debated, and above all scrutinized by the committee before announcing  any award. 

Tuesday, April 30, 2019

याद आये बीते दिन....


याद आये बीते दिन तो रोये,
इक कसक सी उभरी तो रोये।
होश संभाला पाया अपनों को,
जब खो दिया उनको तो रोये।
ज़िन्दगी में मिला एक दोस्त,
जब मुंह फेरा उसने तो रोये।
अपना जहां भी बसाया तो मगर,
अपनों को देखा जब दूर तो रोये।
हर जतन तो किया अपनी ओर से,
जब कोई काम न आया तो रोये।
जीता रहा यूं ही ज़िन्दगी मोहाज़िर,
नहीं छंटा जीवन का अंधेरा तो रोये।

हमें करना था...

"हमें करना था तो कर दिया,बस"- इस नीयत से कुछ भी करने से न करना ही अच्छा है. इससे तो यही झलकता है कि इच्छा का सर्वथा अभाव है. क्या यह "दम्भ प्रदर्शन" नहीं है?

Saturday, April 27, 2019

Priority: The Missing Factor

Whatever Modi government did in five years term is almost negligible. However, the govt took up various projects but neither could be completed, not even near completion. The initiatives of the govt like Beti Bachao Beti Padhao, Swachchha Bharat Abhiyaan, Startup (to curb unemployment),Curb Farmers' crisis didn't meet even the satisfactory level.
On the one hand Beti Bachao Beti Padhao is going on, on the other the girls are tortured, raped and killed across the country.The Shelter Home cases of Bihar and Uttar Pradesh are the burning examples. Besides, a news of  mass exploitation of girls and women flashed from South India. The girls must be saved, at the same time she must be protected too.
Coming to the next, Swachchha Bharat Abhiyan was launched with full fervor to abolish outdoor defacation in rural and urban areas. The government's term is approaching its completion but the ads for the same are yet being transmitted in the radios and televisions.
                                     Whereas farmers' distress is concerned,most of them are leading miserable life. Their labour almost goes in vain and remain debt-ridden till  the last breath. Sometime the central government announced 2000 rupees quarterly (Rs.6000yearly) to the marginal farmers. Its nothing more than an insult.
                             Taking several projects in hand, if the government had prioritized one or two, then the satisfactory end would have met. Its quite natural many projects can be completed in five years term. Its just beyond the capacity of a government.
Some projects might be completed in stipulated time and till then might be other government.
If the government had taken either education or farm sector, unemployment as priority, then one of those might be completed or near completion. Like this, the government could have asked for the mandate boldly instead of making excuses and terrorizing the voters.

Democracy or Jibecracy?

Certainly a sordid tale. In this Lok Sabha Election season, the jibes and slurs are in full swing. Despite warnings issued by the Election Commission, the leaders are not abstaining from it. They are smartly finding the other way out. Besides warning, EC even issued periodic ban but the politicos are just turning their deaf ears. They don't even spare the cast, creed and culture to show the other down. Even the nation, in which we all live, is dragged though implicitly. Sometimes, feel that we are not living in democracy but jibecracy. There is really the competition among the political leaders how low they can go  

Friday, April 26, 2019

Initiative After Initiative

Congress, the grand old party now plans to organize a massive rally in Delhi pertaining to country's economy and traders.Several initiatives taken by the Congress president Rahul Gandhi, though on the right track, ultimately misfired. A fresh instance is announcement of candidate from Varanasi Lok Sabha seat despite creating a hype that Priyanka Gandhi Vadra might file her nomination to contest from the said seat. Besides, swinging in indecision, Rahul has done something which he shouldn't.


If it was the conception that Prime Minister Narendra Modi  should win the election unopposed, then it can't be called fair. After all, it is a contest.Defeat of former PM Atal Behari Vajpayee from Gwalior and veteran leader Hemwati Nandan Bahuguna from Allahabad in 1984.A simple question arises that what was the concept behind it. Instead of taking initiatives one after the other, if Congress president centralizes his focus with determination on a few, might work. Instead of allying with the other political parties, Congress seems all alone in the fray.

     

Wednesday, April 24, 2019

BJP In Dilemma

What else can be said when a political party withdraws its candidate just to appease the ally.It shows that the party is quite unable to take a firm stand on this issue. Somehow it is not convinced and shrouded with a kind of dilemma rather fear that it will face flak if it remains firm on its decision. A cadre-based (as it claims to be)  Bharatiya Janata Party(BJP), not only in a single state but in other states too, has compromised on its position. In such situations, in-fights are in full swing in the party which ultimately ends in exodus or discrimination.Finally, who will succeed in holding the key of power after the election result. Calculations and equations are being drawn just to grab the power by hook or by crook.