Sunday, August 29, 2021

दहला गयी 'टावर हाउस' के खोने की मनहूस खबर ने


 उनके सान्निध्य में काम करते हुए हमें तो यही महसूस हुआ कि हमेशा ऊर्जावान बने रहे. वाजपेयी जी के मातहत पूरे एक साल भी काम नहीं कर पाये जिसका हमें खेद रहेगा. वह इसलिए कि हमें दिल्ली जाना पड़ गया. वहां से पंजाब चले गये.
हालांकि दैनक हिन्दुस्तान, अमर उजाला, दैनिक जागरण जैसे बड़े बैनरों में भी हमने काम किया, लेकिन राष्ट्रीय नवीन मेल जैसी बात कहाँ. जिस तरह बड़े-बड़े मीडिया घराने नाम के साथ 'परिवार' शब्द जोड़ते हैं डालटनगंज में तो सचमुच एक परिवार ही था.
सच पूछें तो यह कहने किंचित झिझक नहीं है कि राष्ट्रीय नवीन मेल के साथ काम करने की संतुष्टि अन्यत्र कहीं नहीं मिली.
पंजाब में हमारे कुछ सहकर्मी डालटनगंज के रहने वाले थे. लिहाजा ख़तों का सिलसिला जारी रहा. फ़िर वह काला दिन भी आया और सम्माननीय वेद प्रकाश भैया की चिरनिद्रा में लीन की ख़बर देकर बरबस मायूस कर गया.
(समाप्त)

Saturday, August 28, 2021

जब डालटनगंज में मिले फिर दो 'धुरंधर'


समय बीतता रहा. इस बीच 1995 का वह उल्लेखनीय साल आया जब पटना से नवभारतटाइम्स का प्रकाशन बंद हो गया. क्यों और कैसे हुआ, यह चर्चा का विषय नहीं है. इस दौरान हम पर भी पत्रकारिता का रंग चढ़ने लगा था.

स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं के अलावा रांची से प्रकाशित दैनिक देशप्राण के लिए भी बतौर संवाददाता काम करने लगे थे. नवभारतटाइम्स के बंद होने पर उससे जुड़े पत्रकार इधर-उधर चले गये.

अगस्त 95 में एक दिन हमारे पास ब्रजेश भाई का फोन आया. उन्होंने पटना आकर मय-सामान मिलने के लिए कहा. पटना पहुंचने पर उन्होंने हमें रात की गाड़ी से डालटनगंज जाने के लिए कहा.

हमारी तो जैसे लॉटरी ही खुल गयी. वहां हमें विनोद बंधु जी मिले. वह और ब्रजेश भाई नवभारतटाइम्स से आये थे. डालटनगंज से एक क्षेत्रीय अख़बार राष्ट्रीय नवीन मेल प्रकाशित होता था.

अख़बार की संपादकीय टीम ने इसे जल्द ही पाठकों की ज़रूरत बना दी.

कुछ पाठकों ने यह टिप्पणी दी-' वैसे तो आज हमने कई अख़बार पढ़े मगर राष्ट्रीय नवीन मेल न पढ़ने पर लगा जैसे आज हमसे कुछ छूट गया है.' यह बात किसी अख़बारनवीस के लिए क्या मायने रखता है, यह तो वही बता सकता है.

डालटनगंज में काम करते हुए हम अपनी धुन में मस्त हो गये. जैसे एक ख़ुमार-सा छा गया था. एक दिन जब तैयार होकर प्रेस गया तो समाचार संपादक के पास कुर्सी पर दुबली-पतली काया वाले एक सज्जन बैठे दिखे. पास जाकर देखा- 'अरे, ये तो अपने वाजपेयी जी हैं.' बंधु जी ने हम दोनों का परिचय कराया. उन्हें नमस्कार कर हम कुछ देर वहीं खड़े होकर कुछ देर बातें की.

फिर क्या कहने! अपनी टीम की तो कोई सानी नहीं रही. बंधु जी और वाजपेयी जी की  लेखनी और कुशल नेतृत्व में राष्ट्रीय नवीन मेल ने जैसे 'तूफान मेल' का रूप इख़्तियार कर लिया.

( अगले भाग में पढ़ें 'दहला गयी 'टावर हाउस' के खोने की मनहूस खबर ने')

Friday, August 27, 2021

जब तत्कालीन सीएम लालू प्रसाद का रास्ता रोका वेद जी ने

 


बात 1993-94 की है. उन दिनों पटना में टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक उत्तम सेनगुप्ता हुआ करते थे. एक दिन प्रेस के सामने संपादक की गाड़ी पर किसी ने गोली चला दी. इस पर वहां अफरातफरी के अलावा काफ़ी बावेला मचा.

उस समय लालू प्रसाद मुख्यमंत्री थे. पिछड़ों और सवर्णों में काफी ठनी हुई थी. घटना के बाद मुख्यमंत्री लाव-लश्कर सहित टाइम्स दफ़्तर की ओर आये. उस वक्त वाजपेयी जी दफ़्तर में मौजूद थे. वह तेजी से लालू प्रसाद के सामने पहुंचे और उनका रास्ता रोक लिया. वह मुख्यमंत्री को दफ़्तर के अंदर जाने देने के सख़्त ख़िलाफ़ थे.
लालू ने मुस्कुराते हुए उनसे अंदर जाने देने का आग्रह किया. आख़िरकार वाजपेयी जी के सहकर्मियों और प्रेस स्टाफ ने मिलकर उन्हें वहां से हटाया. सच और न्याय के रास्ते से उन्हें कोई डिगा नहीं सकता था. तो ऐसे थे वेद प्रकाश वाजपेयी. मलाल इस बात का है कि ऐसे कम लोग ही दीर्घजीवी होते हैं.
उनमें से ही एक किस्सा ब्रजेश भाई ने सुनाया था. बता दें कि पत्रकारिता का क-ख-ग हमने ब्रजेश वर्मा के दोपहिये पर पीछे बैठकर ही सीखा था. उन दिनों संपादकीय और फीचर के सभी पृष्ठ ब्रजेश भाई के जिम्मे थे.
हां, तो वाकया कुछ यूं था. एक दिन ब्रजेश भाई कुछ परेशान-से थे. उन्हें एक पन्ने की लीड आर्टिकल नहीं मिल रही थी. तभी शाम को उन्हें वाजपेयी जी दफ़्तर में दिखे. उन दिनों वह भागलपुर में रह रहे थे. ब्रजेश भाई ने उन्हें अपनी समस्या बतायी. वह टेबल से कुछ काग़ज़ उठाकर पास के बीयर बार में चले गये.
फ़िर तकरीबन आधे घंटे बाद उन्होंने- यह लीजिये शानदार लीड-कह लेख थमा दिया. पेज की नंबरिंग मिलाने पर कुछ पन्ने गुम थे. उन्होंने गुम पन्नों के पिछले पन्नों की आख़िरी लाइन पूछी और वहीं बैठकर आर्टिकल पूरी कर दी. शायद उनका मस्तिष्क ही एक कंप्यूटर था जिसमें बीसियों फ़ाइलें 'सेव' थीं.

(अगले अंक में पढ़ें 'जब डालटनगंज में फिर मिले दो धुरंधर')


 


Thursday, August 26, 2021

हिन्दी पत्रकारिता के 'टावर हाउस' वेद प्रकाश वाजपेयी




 "अगर किसी को खुश करना है तो उसकी मुलाज़िमत करो,पत्रकारिता पर तो तोहमत न लगाओ."

दुबली-पतली काया और चेहरे पर लंबी दाढ़ी. उनके बारे में किसी को पहला आभास यही मिल सकता था. उस चेहरे में दो गहरी- गंभीर आंखें.उनकी  नज़र सामने वाले किसी के भी दिल में गहराई तक उतर जाती. यह बात दिगर है कि उन आंखों की एक्स-रे मानिंद किरणें अगले पर क्या प्रभाव डालती हैं. वह शख़्स थे हिन्दी पत्रकारिता के एक स्तम्भ वेद प्रकाश वाजपेयी.
बात बीसवीं सदी के नौवें (9वें) दशक की है. जब हम पहली बार उनसे मिले थे. तब वाजपेयी जी पटना से प्रकाशित हिन्दी दैनिक नवभारत टाइम्स से जुड़े थे. उनको प्रेस की तरफ से भागलपुर भेजा गया था.
उस समय तक हम भी पत्रकारिता के पेशे की तरफ आकर्षित होने लगे थे. हिन्दी-अंग्रेज़ी पत्रकारों के बीच बैठने लगे थे. उनके आने के बाद तो अपने भी डेढ़-दो घंटे उनके सानिध्य में बीतने लगे. हमें तो स्नेह की अनुभूति हुई जब उन्होंने पहली बार हमारी तरफ देखा.
शहर में आते ही वाजपेयी जी ने एक बार फिर भागलपुर दंगों से संबंधित नयी ख़बर निकाली. इससे राज्य सरकार की खासी किरकिरी हुई थी. तब उनके रुख और नज़र का दूसरा पहलू सामने आया जब सामने वाला थर्रा गया. आलम यह था कि उनके मुरीदों में वे भी शामिल थे जिनके ख़िलाफ उन्होंने लिखा.
ऐसा मानते हैं कि हर विलक्षण प्रतिभा के साथ-साथ कोई न कोई 'सनक' चलती है. वाजपेयी जी को भी 'पीने' का बेहद शौक था. यह कहना कि उनका सिद्धांत "कम खाना-अधिक पीना" था तो शायद ग़लत न होगा. खाना तो उनका शायद बस दो से तीन कौर ही था.
उनके बारे में कोई भी जो चाहे अपनी राय कायम कर सकता है. हमने भी की. शायद वह अपनी स्थिति से किसी को भी मुश्किल में डालना पसंद नहीं करते थे. शायद यही सोचकर वेद जी ताउम्र कुंवारे ही रहे. हालांकि उनके अलावा कोई इस बात का दावा नहीं कर सकता.
हिन्दी पत्रकारिता के मशाल वाजपेयी जी की निर्भीकता और सच के साथ डटे रहने के कितने ही किस्से बिखरे पड़े हैं.
(अगले ब्लॉग में पढ़ेें उनकी निर्भीीकता की मिसाल)