दिल्ली, मध्य प्रदेश, तमिल नाडू, कर्नाटक...तमाम जगहों में ‘हाय पानी!’ ‘हाय पानी!’ मची है. कहीं लोग बाल्टी तो कहीं कैन लिये दौड़ रहे हैं. मध्य प्रदेश के शहर में तो पुलिस का पहरा तक लगा दिया गया है. कोई भी आपदा आये, आरोप ‘आम’ लोगों पर मढ़ दिया जाता है. ऐसा नहीं कि वे जिम्मेदार नहीं होते. होते हैं मगर वही सरासर जिम्मेदार नहीं होते. ‘खास’ लोग भी जिम्मेदार होते. यों कहें कि बराबर के जिम्मेदार होते हैं. उनकी चमचमाती गाड़ियों की चमक, कोठी के सामने वाले लॉन की हरियाली बरकरार रखने के लिए कितने ही क्यूसेक पानी की बलि चढ़ा दी जाती है. सड़कों के किनारे वॉटर सप्लाई की टोंटी-विहीन पाइप से पानी की सतत बहती धार का दृश्य तो आम है. एक कहावत है: “चोर के सामने ताला क्या, बेईमान के सामने केवाला क्या”. ‘केवाला’ ज़मीन की खरीद-बिक्री संबंधी एक दस्तावेज़ होता है. “अपना क्या जाता है” सोच ने हमलोगों को भी ग्रस लिया है. यह भी नहीं लगता कि अपनी “माल-ए-मुफ्त दिल-ए-बेरहम” की सोच एक दिन हमें कहां ले जायेगी. कतई ताज्जूब नहीं होना चाहिए कि कुछ जगहों का यह नज़ारा पूरे मुल्क का मंज़र बन जाये.
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