बात 1993-94 की है. उन दिनों पटना में टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक उत्तम सेनगुप्ता हुआ करते थे. एक दिन प्रेस के सामने संपादक की गाड़ी पर किसी ने गोली चला दी. इस पर वहां अफरातफरी के अलावा काफ़ी बावेला मचा.
उस समय लालू प्रसाद मुख्यमंत्री थे. पिछड़ों और सवर्णों में काफी ठनी हुई थी. घटना के बाद मुख्यमंत्री लाव-लश्कर सहित टाइम्स दफ़्तर की ओर आये. उस वक्त वाजपेयी जी दफ़्तर में मौजूद थे. वह तेजी से लालू प्रसाद के सामने पहुंचे और उनका रास्ता रोक लिया. वह मुख्यमंत्री को दफ़्तर के अंदर जाने देने के सख़्त ख़िलाफ़ थे.
लालू ने मुस्कुराते हुए उनसे अंदर जाने देने का आग्रह किया. आख़िरकार वाजपेयी जी के सहकर्मियों और प्रेस स्टाफ ने मिलकर उन्हें वहां से हटाया. सच और न्याय के रास्ते से उन्हें कोई डिगा नहीं सकता था. तो ऐसे थे वेद प्रकाश वाजपेयी. मलाल इस बात का है कि ऐसे कम लोग ही दीर्घजीवी होते हैं.
उनमें से ही एक किस्सा ब्रजेश भाई ने सुनाया था. बता दें कि पत्रकारिता का क-ख-ग हमने ब्रजेश वर्मा के दोपहिये पर पीछे बैठकर ही सीखा था. उन दिनों संपादकीय और फीचर के सभी पृष्ठ ब्रजेश भाई के जिम्मे थे.
हां, तो वाकया कुछ यूं था. एक दिन ब्रजेश भाई कुछ परेशान-से थे. उन्हें एक पन्ने की लीड आर्टिकल नहीं मिल रही थी. तभी शाम को उन्हें वाजपेयी जी दफ़्तर में दिखे. उन दिनों वह भागलपुर में रह रहे थे. ब्रजेश भाई ने उन्हें अपनी समस्या बतायी. वह टेबल से कुछ काग़ज़ उठाकर पास के बीयर बार में चले गये.
फ़िर तकरीबन आधे घंटे बाद उन्होंने- यह लीजिये शानदार लीड-कह लेख थमा दिया. पेज की नंबरिंग मिलाने पर कुछ पन्ने गुम थे. उन्होंने गुम पन्नों के पिछले पन्नों की आख़िरी लाइन पूछी और वहीं बैठकर आर्टिकल पूरी कर दी. शायद उनका मस्तिष्क ही एक कंप्यूटर था जिसमें बीसियों फ़ाइलें 'सेव' थीं.
(अगले अंक में पढ़ें 'जब डालटनगंज में फिर मिले दो धुरंधर')
No comments:
Post a Comment