जब भी कोई पहल करते हैं तो अधिकांशतः अन्यमनस्क भाव का ही सामना करना पड़ता
है. एक-दो बार तो क्या अक्सर ऐसी स्थिति सामने आती है. तो क्या करना चाहिए? तो क्या कुछ भी नहीं कहना या करना चाहिए? आत्ममंथन के साथ-साथ मानसिक मंथन भी किया. सवाल यह
उठता है कि क्या इस स्थिति को बदला नहीं जा सकता है. शायद नहीं, क्योंकि अगर बदलना
होता तो चार-पांच बार में ही कोई सकारात्मक परिणाम सामने आ जाता. ऐसा नहीं कि कोई
परिणाम सामने नहीं आया. आया, ज़रूर आया. वह विरोधी, नकारात्मक भी कह सकते हैं,
परिणाम ही सिद्ध हुआ. कहते हैं कि पुरानी आदत, अभ्यास तुरन्त बदले नहीं जा सकते.
सही है. इस तर्क के साथ ही एक सवाल यह भी सहज ही उभरता है कि किसी भी पहल को
गंभीरता से लिया गया या नहीं. गंभीरता-इस एक शब्द पर अगर ग़ौर किया जाये तो पहली
बार में ही स्थिति बदल सकती है.
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