ज़्यादातर स्कूलों में विद्यार्थियों को
सामान्यतः दो भागों में बांट दिया जाता है-एक तो सामान्य और दूसरा तेज़. इसी धारणा
के साये में नर्सरी से लेकर दसवीं कक्षा तक के विद्यार्थियों की शिक्षा-दीक्षा
होती है. हालांकि यह एक धारणा-मात्र है सच की कसौटी पर परखा हुआ कोई तथ्य नहीं.
किस बच्चे में क्या क्षमता है इसका मूल्यांकन विरले ही होता है. इस बात की परख
करने में शिक्षकों की भूमिका बढ़ जाती है. ऐसा नहीं है कि बच्चे मंदबुद्धि होते
हैं. सभी बच्चों में कुछ न कुछ सकारात्मक पक्ष भी होता है जिसे तराश कर उभारने की ज़रूरत
होती है. कोई पढ़ने में तो कोई खेलने में, कोई चित्रकला में तो कोई क्राफ्टवर्क में.
सिर्फ धारणा बना लेने से स्कूल पक्ष के दायित्व पूरे नहीं हो जाते. यह एक ध्रुव
सत्य है कि स्कूल के माहौल और शिक्षक का असर विद्यार्थियों पर पड़ता ही है.
हालांकि यह सही है कि कोई
बच्चा मुखर होता तो कोई अंतर्मुखी. मुखर बच्चे की गतिविधियों से उसके रुझान और
योग्यता का सहज ही पता चल जाता है. वहीं अंतर्मुखी बच्चे को समझ पाना सहज नहीं है.
उसे समझने के लिए उद्यम करना पड़ता है. स्कूल में शिक्षक तो यही सुझाव दे जाते हैं
कि घर में बच्चों पर ध्यान देना ज़रूरी होता है क्योंकि बच्चा अधिकाश समय अपने घर
पर ही बिताता है जबकि स्कूल में चन्द घंटे. स्कूलों में बच्चों द्वारा बिताये गये
चन्द घंटे ही सुनहरा साबित होते हैं. आज की तारीख में बच्चों को पहली कक्षा से ही
अतिरिक्त ट्यूशन देने की ज़रूरत आन पड़ती है जबकि तीन-चार दशक पहले तक तो
सातवीं-आठवीं कक्षा के विद्यार्थियों को ट्यूशन नहीं के बराबर दी जाती थी. इस
बिन्दू पर ध्यान देने की ज़रूरत है जबकि प्रायः इसकी अनदेखी कर दी जाती है.
आजकल 90-95 प्रतिशत अंक के
साथ परीक्षा परिणाम आते हैं. अगर चार-पांच दशक पहले की बातें करें तो 60-70
प्रतिशत अंक पाने वालों को समाज पलकों पर बिठा लेता था. पहले के विद्यार्थी जहां खुद
को हल्का महसूस करते थे, वहीं आज के बच्चे एक अदृश्य भार और चिन्ता से दबे रहते
हैं. शुरू से ही उनमें यह भाव भर दिया जाता है कि ज़्यादा से ज़्यादा अंक लाने
ज़रूरी है अन्यथा आगे की पढ़ाई नहीं कर सकेंगे- गलाकाट प्रतियोगिता का ज़माना है.
इसके साथ ही बच्चों के मन में विकार की उत्पत्ति शुरू हो जाती है जो पन्द्रह-सोलह
साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते नासूर बन जाता है. आजकल तो परीक्षा के नतीजे आने
के साथ-साथ खुदकुशी की खबरें भी आम हो गयी हैं. लिहाजा परिणाम आने के समय अधिकांश अभिभावक
आतंकित होने लगते हैं-पता नहीं कैसा नतीजा आये और बच्चे क्या कर जायें.
रही शिक्षा व्यवस्था की बात,
तो इस पर सिलसिलेवार प्रयोग ही होते आ रहे हैं. कभी एक पैटर्न तो कभी दूसरा. हर
क्षेत्र में सियासत की पैठ होने से शिक्षा व्यवस्था का माहौल भी जैसे अराजक हो गया
है. स्थायित्व एवं गुणात्मकता का नितान्त अभाव-सा हो गया है. वैसे तो पांचवीं
कक्षा का कोई विद्यार्थी कम्प्यूटर और इंटरनेट सर्फ करने में लगभग माहिर हो गया
है. ज़ाहिर है समय के अनुसार परिवर्तन भी होता है. वहीं, क्लास में कोई सवाल पूछने
पर शिक्षक का यह जवाब कि इंटरनेट में देख लेना कहां तक उचित है. बच्चा स्कूल जाता
है, स्कूल में कक्षा में पढ़ता है तो वह शिक्षक से ही सवाल करेगा न. उसकी समस्या
का समाधान शिक्षक को देना चाहिए या इंटरनेट को. सरकारी स्कूलों की उचित देखरेख न
होने से वे दिन-ब-दिन बदहाल होते जा रहे हैं और निजी स्कूलों की बन आयी है. यह भी
शोचनीय विषय है.
बहरहाल, शिक्षा ऐसी तो
होनी ही चाहिए जो विद्यार्थी को सामान्य स्थिति में बनाये रखे न कि उसे खौफज़दा कर
दे.
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