मोदी सरकार 2.0 की शिक्षा
क्षेत्र में चन्द आवश्यक परिवर्तन करने की पहल निश्चय ही स्वागतयोग्य है. हालांकि
इस संबंध में मोदी सरकार द्वारा वर्ष 2017 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत गठित विशेषज्ञों
की एक समिति ने निजी स्कूलों की फीस राशि को भी नियंत्रित और प्रासंगिक करने का
सुझाव दिया है. वैसे तो यह एक दुरुस्त कदम है. निजी स्कूलों की मनमानी से अधिकांश
लोग त्रस्त हैं. हर साल फीस बढ़ाने-कभी विकास शुल्क तो कभी समग्र विकास के नाम पर-से
मध्यम वर्ग का जीना मुहाल हो गया है. साथ ही यह भी देखना होगा कि इस नियमन पर कैसे
और कहां तक अमल हो रहा है. ऐसा देखा गया है कि सरकार ने तो नियम पारित कर दिये और
उन पर स्कूलों द्वारा न के बराबर अमल किया जा रहा है. पिछले दिनों मानव संसाधन
मंत्रालय द्वारा विद्यार्थियों के स्कूल बैग के वज़न के लिए भी मानक तय किये थे.
फिर भी अधिकांश स्कूलों के विद्यार्थियों को भारी बैग ढोते देखा जाता है.
Friday, May 31, 2019
भेदभाव से परे हो मातृभाषा की पढ़ाई
मोदी सरकार 2.0 की शिक्षा
क्षेत्र में चन्द आवश्यक परिवर्तन करने की पहल निश्चय ही स्वागतयोग्य है. हालांकि
इस संबंध में मोदी सरकार द्वारा वर्ष 2017 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत गठित विशेषज्ञों
की एक समिति ने प्राइमरी कक्षाओं से ही मातृभाषा की पढ़ाई का सुझाव दिया है. प्राइमरी
कक्षाओं से ही मातृभाषा की पढ़ाई एक अच्छा कदम है. इस पहल से फूट-बिखराव का
बीजारोपण न हो जाये- इसके लिए सतर्क रहना होगा. इसे पूरी तरह से राजनीति-मुक्त
होना होगा तभी यह कोई सकारात्मक परिणाम देगा. ऐसा इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि यह
विद्यार्थियों के भविष्य निर्माण का सवाल है जो पूरी तरह निर्दोष होना चाहिए.
Tuesday, May 28, 2019
Acid Attack Costs Girl's Life
Ultimately, the acid
attack victim, who had passed plus two, breathed her last after a 38-day
struggle for life. The victim hailed from Bhagalpur (Bihar). However, the local
administration claims that the statements of the victim’s family are
contradicting. Like who captured her, who threw acid and else. But isn’t it the
fact that the crime took place. When the convicts are being named then there is
truth.
By all means, acid attack
is one of the horrific faces of the gender-based crime. Injuring the body, it shatters
the victim’s personality and damages the confidence in abundance as well. This
incident reflects that in which direction the current generation is advancing.
Though there are several major factors influencing the youth. The mindset of most
of the youth has become extremely precarious.
The cyber age and several
horrific video games are obviously responsible for such crimes. But increasing
intolerance and ego has taken the youth in the grip. In fact, they don’t even
think twice to damage themselves too. In
one of such cases one convict was awarded death sentence for throwing sulphuric
acid on Preeti Rathi , who unfortunately succumbed to injury.
It is said that 350 cases
of acid attack are registered in India every year, whereas according to the
research conducted by Acid Survivors Foundation the figure mounts upto 500-1000
per year. However, many of such cases remain unnoticed, because the cases are
not registered. The reluctance of victims’ family might be one of the reasons.
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Wednesday, May 22, 2019
किताबों-वजीफों से महरूम विद्यार्थी
जब कोई विद्यार्थी एक कक्षा पास कर अगली कक्षा में प्रवेश करता है तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता है. लाजिमी भी हैं. आज के बुजुर्गों को भी उनके जीवन के उस पड़ाव खुशी का अहसास हुआ होगा. अब तो सरकारी स्कूलों में आलम यह है कि कक्षा की पढ़ाई शुरू होने के चार-पांच माह तक भी कोई एक-दो किताबें विद्यार्थियों को नहीं मिलती हैं. इस सूरत में वह कैसे पढ़ेगा, इसकी भी परवाह स्कूल और शिक्षकों को नहीं ही होती है. पूछने पर टका-सा जवाब भी तैयार रहता है कि ‘आने पर मिल जायेगी’ और ‘हम क्या कर सकते हैं.’ सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों को छात्रवृत्ति (वजीफा) भी दी जाती है.
जाहिर हैं हर हाल में नुकसान तो विद्यार्थी का ही होता है. हालांकि राज्य सरकार ने छात्राओं को साइकिलें भी दी है. अब सवाल उठता है कि किताबें इतने दिनों तक क्यों नहीं मिलतीं. किताबें मिलती तो हैं मगर स्कूल प्रबंधन की कारस्तानी सिरे नहीं चढ़ पाती. यही कह सकते हैं. तभी तो इतने लंबे समय तक किताबें नहीं मिल पातीं. आये दिन खबरें मिलती हैं कि सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों को कई महीनों से वजीफे की राशि नहीं मिली है.
हालांकि सरकारी खजाने से तो राशि निर्गत तो हो जाती है मगर विद्यार्थियों तक नहीं पहुंच पाती. इस बाबत स्कूल प्रधान को समय-समय पर नोटिस भी जारी किये गये हैं. अब सीधा-सीधा सवाल उठता है कि निकास की गयी राशि आखिर जाती कहां है जो जरूरतमंदों को नहीं मिल पाती.
अगर यही अनियमितता जारी रही तब तो विद्यार्थियों को इसका लाभ मिलने से रहा. लिहाजा, स्कूलों की गतिविधियों के लिए विशेष रूप से किसी सरकारी मुलाजिम को प्रतिनियुक्त किया जाये. जो समय-समय पर स्कूलों के बारे में रिपोर्ट करता रहे.
जाहिर हैं हर हाल में नुकसान तो विद्यार्थी का ही होता है. हालांकि राज्य सरकार ने छात्राओं को साइकिलें भी दी है. अब सवाल उठता है कि किताबें इतने दिनों तक क्यों नहीं मिलतीं. किताबें मिलती तो हैं मगर स्कूल प्रबंधन की कारस्तानी सिरे नहीं चढ़ पाती. यही कह सकते हैं. तभी तो इतने लंबे समय तक किताबें नहीं मिल पातीं. आये दिन खबरें मिलती हैं कि सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों को कई महीनों से वजीफे की राशि नहीं मिली है.
हालांकि सरकारी खजाने से तो राशि निर्गत तो हो जाती है मगर विद्यार्थियों तक नहीं पहुंच पाती. इस बाबत स्कूल प्रधान को समय-समय पर नोटिस भी जारी किये गये हैं. अब सीधा-सीधा सवाल उठता है कि निकास की गयी राशि आखिर जाती कहां है जो जरूरतमंदों को नहीं मिल पाती.
अगर यही अनियमितता जारी रही तब तो विद्यार्थियों को इसका लाभ मिलने से रहा. लिहाजा, स्कूलों की गतिविधियों के लिए विशेष रूप से किसी सरकारी मुलाजिम को प्रतिनियुक्त किया जाये. जो समय-समय पर स्कूलों के बारे में रिपोर्ट करता रहे.
ज़िन्दा होने का अहसास
जेठ की
भरी दोपहरी में जब जिस्म
से टकराती हैं अंगारे उगलती हवायें
तो ज़िन्दा होने का अहसास होता है।
वैसे तो दुनिया के हर एक मोड़ पर
मिलने वाले लगते ढो रहे ज़िन्दगी
दिल खोखला रेशमी लिबास होता है।
यूं तो ओढ़े रहते कमोवेश हर लोग
अपने चेहरे पर दो इंच की मुस्कान
हक़ीक़त भांप लेता जो खास होता है।
कह भी तो न सकते सबसे हालेदिल
जाने क्या हो सामने वाले के मन में
ताड़ लेता है जो दिल के पास होता है।
से टकराती हैं अंगारे उगलती हवायें
तो ज़िन्दा होने का अहसास होता है।
वैसे तो दुनिया के हर एक मोड़ पर
मिलने वाले लगते ढो रहे ज़िन्दगी
दिल खोखला रेशमी लिबास होता है।
यूं तो ओढ़े रहते कमोवेश हर लोग
अपने चेहरे पर दो इंच की मुस्कान
हक़ीक़त भांप लेता जो खास होता है।
कह भी तो न सकते सबसे हालेदिल
जाने क्या हो सामने वाले के मन में
ताड़ लेता है जो दिल के पास होता है।
Monday, May 20, 2019
खतरनाक है अन्यमनस्क होने का भाव
जब भी कोई पहल करते हैं तो अधिकांशतः अन्यमनस्क भाव का ही सामना करना पड़ता
है. एक-दो बार तो क्या अक्सर ऐसी स्थिति सामने आती है. तो क्या करना चाहिए? तो क्या कुछ भी नहीं कहना या करना चाहिए? आत्ममंथन के साथ-साथ मानसिक मंथन भी किया. सवाल यह
उठता है कि क्या इस स्थिति को बदला नहीं जा सकता है. शायद नहीं, क्योंकि अगर बदलना
होता तो चार-पांच बार में ही कोई सकारात्मक परिणाम सामने आ जाता. ऐसा नहीं कि कोई
परिणाम सामने नहीं आया. आया, ज़रूर आया. वह विरोधी, नकारात्मक भी कह सकते हैं,
परिणाम ही सिद्ध हुआ. कहते हैं कि पुरानी आदत, अभ्यास तुरन्त बदले नहीं जा सकते.
सही है. इस तर्क के साथ ही एक सवाल यह भी सहज ही उभरता है कि किसी भी पहल को
गंभीरता से लिया गया या नहीं. गंभीरता-इस एक शब्द पर अगर ग़ौर किया जाये तो पहली
बार में ही स्थिति बदल सकती है.
विद्यार्थी सामान्य स्थिति में रहें न कि खौफज़दा
ज़्यादातर स्कूलों में विद्यार्थियों को
सामान्यतः दो भागों में बांट दिया जाता है-एक तो सामान्य और दूसरा तेज़. इसी धारणा
के साये में नर्सरी से लेकर दसवीं कक्षा तक के विद्यार्थियों की शिक्षा-दीक्षा
होती है. हालांकि यह एक धारणा-मात्र है सच की कसौटी पर परखा हुआ कोई तथ्य नहीं.
किस बच्चे में क्या क्षमता है इसका मूल्यांकन विरले ही होता है. इस बात की परख
करने में शिक्षकों की भूमिका बढ़ जाती है. ऐसा नहीं है कि बच्चे मंदबुद्धि होते
हैं. सभी बच्चों में कुछ न कुछ सकारात्मक पक्ष भी होता है जिसे तराश कर उभारने की ज़रूरत
होती है. कोई पढ़ने में तो कोई खेलने में, कोई चित्रकला में तो कोई क्राफ्टवर्क में.
सिर्फ धारणा बना लेने से स्कूल पक्ष के दायित्व पूरे नहीं हो जाते. यह एक ध्रुव
सत्य है कि स्कूल के माहौल और शिक्षक का असर विद्यार्थियों पर पड़ता ही है.
हालांकि यह सही है कि कोई
बच्चा मुखर होता तो कोई अंतर्मुखी. मुखर बच्चे की गतिविधियों से उसके रुझान और
योग्यता का सहज ही पता चल जाता है. वहीं अंतर्मुखी बच्चे को समझ पाना सहज नहीं है.
उसे समझने के लिए उद्यम करना पड़ता है. स्कूल में शिक्षक तो यही सुझाव दे जाते हैं
कि घर में बच्चों पर ध्यान देना ज़रूरी होता है क्योंकि बच्चा अधिकाश समय अपने घर
पर ही बिताता है जबकि स्कूल में चन्द घंटे. स्कूलों में बच्चों द्वारा बिताये गये
चन्द घंटे ही सुनहरा साबित होते हैं. आज की तारीख में बच्चों को पहली कक्षा से ही
अतिरिक्त ट्यूशन देने की ज़रूरत आन पड़ती है जबकि तीन-चार दशक पहले तक तो
सातवीं-आठवीं कक्षा के विद्यार्थियों को ट्यूशन नहीं के बराबर दी जाती थी. इस
बिन्दू पर ध्यान देने की ज़रूरत है जबकि प्रायः इसकी अनदेखी कर दी जाती है.
आजकल 90-95 प्रतिशत अंक के
साथ परीक्षा परिणाम आते हैं. अगर चार-पांच दशक पहले की बातें करें तो 60-70
प्रतिशत अंक पाने वालों को समाज पलकों पर बिठा लेता था. पहले के विद्यार्थी जहां खुद
को हल्का महसूस करते थे, वहीं आज के बच्चे एक अदृश्य भार और चिन्ता से दबे रहते
हैं. शुरू से ही उनमें यह भाव भर दिया जाता है कि ज़्यादा से ज़्यादा अंक लाने
ज़रूरी है अन्यथा आगे की पढ़ाई नहीं कर सकेंगे- गलाकाट प्रतियोगिता का ज़माना है.
इसके साथ ही बच्चों के मन में विकार की उत्पत्ति शुरू हो जाती है जो पन्द्रह-सोलह
साल की उम्र तक पहुंचते-पहुंचते नासूर बन जाता है. आजकल तो परीक्षा के नतीजे आने
के साथ-साथ खुदकुशी की खबरें भी आम हो गयी हैं. लिहाजा परिणाम आने के समय अधिकांश अभिभावक
आतंकित होने लगते हैं-पता नहीं कैसा नतीजा आये और बच्चे क्या कर जायें.
रही शिक्षा व्यवस्था की बात,
तो इस पर सिलसिलेवार प्रयोग ही होते आ रहे हैं. कभी एक पैटर्न तो कभी दूसरा. हर
क्षेत्र में सियासत की पैठ होने से शिक्षा व्यवस्था का माहौल भी जैसे अराजक हो गया
है. स्थायित्व एवं गुणात्मकता का नितान्त अभाव-सा हो गया है. वैसे तो पांचवीं
कक्षा का कोई विद्यार्थी कम्प्यूटर और इंटरनेट सर्फ करने में लगभग माहिर हो गया
है. ज़ाहिर है समय के अनुसार परिवर्तन भी होता है. वहीं, क्लास में कोई सवाल पूछने
पर शिक्षक का यह जवाब कि इंटरनेट में देख लेना कहां तक उचित है. बच्चा स्कूल जाता
है, स्कूल में कक्षा में पढ़ता है तो वह शिक्षक से ही सवाल करेगा न. उसकी समस्या
का समाधान शिक्षक को देना चाहिए या इंटरनेट को. सरकारी स्कूलों की उचित देखरेख न
होने से वे दिन-ब-दिन बदहाल होते जा रहे हैं और निजी स्कूलों की बन आयी है. यह भी
शोचनीय विषय है.
बहरहाल, शिक्षा ऐसी तो
होनी ही चाहिए जो विद्यार्थी को सामान्य स्थिति में बनाये रखे न कि उसे खौफज़दा कर
दे. Monday, May 13, 2019
क्या हुआ स्कूल बैग के वज़न का?
पिछले दिनों
मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा स्कूल के विद्यार्थियों के संबंध में निर्देश जारी
किये थे. उनके स्कूल बैग के वज़न से संबंधित थे. तकरीबन छह-सात माह पहले ये निर्देश
किये गये थे. इतने दिनों के अंतराल में इस पर एक सरसरी निगाह डालें कि इन
निर्देशों पर कितना अमल हुआ या नहीं हुआ, तो कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए.
मंत्रालय
द्वारा जारी निर्देश में कहा गया था कि पहली व दूसरी कक्षा के विद्यार्थियों के स्कूल
बैग का वज़न 1.5 किलो से अधिक नहीं होना चाहिए. वहीं तीसरी से पांचवीं जमात के बैग
का वज़न दो से तीन किलो, छठी व सातवीं के लिए 4 किलो, आठवीं व नौवीं कक्षा के लिए
4.5 किलो और दसवीं कक्षा के लिए बैग का वज़न 5 किलो से ज्यादा नहीं होना
प्रस्तावित था. जिस दिन जिन विषयों की पढ़ाई होनी है उससे संबंधित ही
किताबें-कॉपियां लाने को कहा गया था.
आज की तारीख
में हक़ीक़त कुछ और ही बयान करता है. पहली से दसवीं कक्षा तक के स्कूल बैग का
मंत्रालय द्वारा प्रस्तावित सीमा से कहीं अधिक है. पांचवीं-छठी कक्षा के
विद्यार्थियों के स्कूल बैग का वज़न करीब छह किलो से कम तो नहीं होंगे. सूरतेहाल
यह है कि आज भी अधिकांश शहरों के स्कूलों में स्थिति वही है. विद्यार्थी बैग के
बोझ तले दबे जा रहे हैं.
उसपर
स्कूल यानी टीचर्स की तरफ से विद्यार्थियों को हर विषय के लिए हैंड राइटिंग की
एक-एक कॉपी रखने का फरमान जारी किया गया है. माना कि पांचवीं तक के विद्यार्थियों
के लिए हैंड राइटिंग ज़रूरी है. अब तो वह भी नहीं होना चाहिए क्योंकि पहली कक्षा
में आने से पहले विद्यार्थियों को नर्सरी, एलकेजी और यूकेजी की कक्षाएं पास करनी
होती है. हद तो तब है कि दसवीं तक के विद्यार्थियों को भी हैंड राइटिंग के लिए
कॉपी बनाने के लिए कहा गया है. क्या इस निर्देश को व्यावहारिक कहा जा सकता है?
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Sunday, May 5, 2019
“अख़बार” और “अफ़वाह”
सेन्ट्ल बोर्ड
ऑफ सेकेन्डरी एजुकेशन(सीबीएसई) दसवीं की परीक्षा के परिणाम आने की संभावना की खबर
के बाद ही दूसरी खबर से उसे “फेक न्यूज़” कहकर सिरे से खारिज कर दिया.वाकई कमाल है. दोनों खबरें
सीबीएसई प्रवक्ता रमा शर्मा के हवाले से बतायी गयीं. यह देख-पढ़कर बचपन के दिन आ
गये. जब दोस्तों-हमउम्रों में जब कोई नयी जानकारी साझा करते थे तो उसे मानने के
लिए कोई तैयार नहीं होता. एक लम्बी या कहें अन्तहीन बहस छिड़ जाती थी. फिर तो वह
बात माता-पिता या बड़ों की अदालत में पहुंच जाती थी. इनके अलावा भी ज़रिया होता था
जो बेपनाह भरोसा का हक़दार था, वह था-अखबार.जब किसी भी
तरह बात बनती न दिखती थी तो अख़बार को सामने कर देते थे. ब्रेकिंग न्यूज़ के इस
दौर में कभी-कभी तो ख़बरों का यह ज़रिया मखौल का सामान बन कर रह जाता है. लिहाज़ा
इस मज़बूत ज़रिये को और भी यकीनी बनाने की जानिब कोशिश करने की ज़रूरत है. भरोसे
की कसौटी पर कसकर ही खबरें परोसी जायें तभी इसकी प्रासंगिकता बनी रह सकती है, “अख़बार” और “अफ़वाह”में फर्क ही
क्या रह जायेगा. मीडिया जगत के सरपरस्तों को इस जानिब सोचना और समझना भी होगा.
Friday, May 3, 2019
Prejudice and Partiality
It is a hard fact that while conferring the individuals national awards for their contributions to the nation, in any field, the governments miss the wit. An argument has surfaced in connection of awarding ATS chief Hemant Karkare-whether or not. It would be quite silly to oppose the decision abruptly, But it is undeniable that that the successive governments couldn't rise above prejudice and partiality in this regard. The same perception related to 'camp' arises which undoubtedly demeans the awards' importance. It needs to be well analysed and debated, and above all scrutinized by the committee before announcing any award.
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