हमेशा होती रही है राजनीतिक पूर्वाग्रह का शिकार
अपनी-अपनी विचारधारायें थोपने में लगे तमाम दल
सामाजिक-सांस्कृतिक-भौगोलिक पहलू होते रहे नजरंदाज
हमारी देश की शिक्षा पद्धति आये दिन बदलाव के थपेड़े झेलती रहती है। कभी बेहतरी के नाम पर तो कभी उसे सरल-सुगम बनाने के नाम पर। फिर भी यह संपूर्णता तक नहीं पहुंच पाती है। इसे एक विडंबना कहें या शिक्षार्थियों का भाग्य! दरअसल, बच्चों की दशा-दिशा को लेकर शिक्षा के सही और प्रासंगिक स्वरूप के लिए कोई अनुसंधान, विचार-मंथन आदि नहीं होते। अगर होते भी हैं तो विद्यार्थियों पर तत्कालीन सरकारों के विचार (या षडयंत्र भी कह सकते हैं) ही थोप दिये जाते हैं। इसके लिए आवश्यक तथ्य तो कम, राजनीति ही अधिक होती है।
सरकारें तो आखिर राजनीतिक दल ही बनाते हैं और उनकी अपनी विचारधाराएं और नीतियां होती हैं। तमाम दल अपने मनमाफिक कार्य करते हैं। अपने विचार थोपते हैं। शिक्षा के जरिये विद्यार्थियों के अपरिपक्व मन में भेदभाव का बीजारोपण किया जाता है । कमोवेश सभी दल अपने-अपने पूर्वाग्रह से ग्रसित होते हैं। इसकी गंध भी अवाम को मिली ही होगी। नहीं का तो कोई सवाल ही नहीं।
बहरहाल, नीतियां तो आये दिन बनती ही रहती हैं, पुनरीक्षण भी होते रहते हैं। सवाल जो उठता है वह है कि इनका परिणाम क्या मिलता है। इस बिन्दू पर गौर करना भी जरूरी हो जाता है। बतौर मिसाल, आजकल अधिकांश स्कूलों में प्रोजेक्ट वर्क जैसे कौशल विकास कार्यों पर खास जोर दिया जाता है। यह सच है कि यह व्यक्तित्व विकास का एक अनिवार्य अंग है, मगर इसे संपूर्ण विकास की संज्ञा देना बुद्धिमानी कतई नहीं कही जा सकती। आलम यह है कि सारा दारोमदार इसी एक पर डालकर पढ़ाई के अन्य विषयों की पढ़ाई जैसे गौण ही हो जाती है। गौर करने पर यह स्पष्ट हो जायेगा कि देश के उभरते भविष्य यानी विद्यार्थियों के साथ सरासर छलावा किया जा रहा है।
देश के अधिकांश सरकारी स्कूलों के हालात किसी से छिपे नहीं हैं। खंडहर होते भवन तो विद्यार्थियों के लिए न्यूनतम सुविधाओं का अभाव, न खेलकूद की समुचित व्यवस्था। पठन-पाठन की सुविधाओं के क्या कहने ! न पुस्तकालय-वाचनालय न विज्ञान प्रयोगशाला। हालांकि उन सबके मद में शुल्क तो नियमित रूप से वसूले जाते हैं मगर सुविधायें उपलब्ध कराने के नाम पर सिफर। पढ़ाने वाले शिक्षकों-शिक्षिकाओं की योग्यता के सामने एक विशाल प्रश्नचिह्न ही लगा होता है। किसी विषय को पढ़ाने के क्रम में विद्यार्थियों से सपाट शब्दों में कह देते हैं कि इंटरनेट में देख लेना,जहां कहीं भी उन्हें असुविधा महसूस होती है।
बतौर मिसाल बिहार को ही ले लें। एक सरकारी आंकड़े के मुताबिक (जुलाई, 2021 में प्रकाशित) प्रदेश में तकरीबन 72,663 सरकारी स्कूल हैं। उनमें 42573 प्राथमिक, 25,587 उच्च प्राथमिक, 2286 माध्यमिक और 2,217 उच्चतर माध्यमिक विद्यालय हैं। साथ ही, यह दावा तो कोई भी कर सकते हैं कि इनमें से अधिकांश विद्यालय अपने अस्तित्व को बचाने के लिए किसी-न-किसी समस्या से जूझ ही रहे होंगे। कहीं न्यूनतम सुविधाओं का अभाव तो कही पर्याप्त शिक्षकों का, और कहीं इन्फ्रास्ट्रक्चर (आधारभूत संरचना) का नितांत अभाव।
इस क्रम में देश-भर में 10,83,678 सरकारी स्कूल हैं। ऐसा भी नहीं है कि सिर्फ बिहार के सरकारी स्कूल ही दुर्दशा झेल रहे हैं। कमोवेश यही हालात देश भर के अधिकांश स्कूलों के हैं। आये दिन बच्चों के अभिभावक तो कभी गांवों की पंचायतें वैसे स्कूलों के सामने प्रदर्शन कर ताले भी लगा देते हैं। वहीं, दूसरी ओर देश भर में तकरीबन 4,00,000 निजी स्कूल हैं। ये दिन दूनी रात चौगूनी फल-फूल भी रहे हैं।
निजी स्कूलों के फलने-फूलने के तमाम कारणों में से एक प्रमुख कारण है- सरकारों का सरकारी स्कूलों के प्रति गंभीर उदासीनता। आलम यह है कि दस साल का बच्चा भी स्कूलों-शिक्षकों की पोल खोल देता है। उस पर शिक्षा संबंधी नीतियां भी कम जिम्मेवार नहीं। उनमें से ही एक नीति के तहत आठवीं कक्षा तक के किसी विद्यार्थी को फेल (अनुत्तीर्ण) नहीं किया जायेगा। आखिर व्यवस्था इसके जरिये क्या संदेश देना चाहती है? क्या इससे विद्यार्थियों को अपना आकलन करने का मौका मिल पायेगा? इससे तो शिक्षा व्यवस्था की अक्षमता ही उजागर होती है।
अब बिहार के निजी स्कूलों की ही बात लें। कम से कम 100 से ज्यादा उल्लेखनीय और नामचीन स्कूल हैं । महज दो कमरों के साथ शुरू किया गया विद्यालय चंद वर्षों में आलीशान भवन में तब्दील हो जाता है। आखिर कैसे? यह सवाल उठना तो लाजिमी है। उस पर तुर्रा यह कि उनमें से ज्यादातर विद्यालय अंग्रेजी माध्यम से संचालित होते हैं। (भले ही अंग्रेजी शब्दों की स्पेलिंग और उच्चारण भी सही न कर पाते हों !) इस आधार पर ऐसे स्कूलों के प्रबंधन बच्चों के अभिभावकों से हर साल मोटी रकम वसूलते हैं। अभिभावक भी अदा करते हैं- करना पड़ता है। वे इस भुलावे में रहते हैं कि बच्चे अंग्रेजी पढ़कर अच्छे पदों पर नियुक्त होंगे। दूसरी ओर, सरकारी स्कूल खंडहरों में तब्दील हो रहे हैं।
इस संदर्भ में एक अनूठी मिसाल पेश है। जो आज 60-70 वर्ष आयु-वर्ग के हैं। उनमें से अधिकांश को अपनी चौथी-पांचवीं कक्षा में पढ़े पाठों के कुछ अंश आज भी याद हैं। धाराप्रवाह बोल भी सकते हैं। वहीं, वर्तमान पीढ़ी के कॉलेज में पढ़ने वालों से अगर स्कूलों में पढ़े किसी पाठ के बारे में पूछ दें तो वे बगलें झांकने लगते हैं। क्या इससे यह साबित नहीं होता कि पूर्व की अपेक्षा आज शिक्षा का स्तर कितना गिर रहा है?
तमाम विसंगतियों के अलावा शिक्षा व्यवस्था पर राजनीतिक पूर्वाग्रह का ग्रहण लगा हुआ है। जाहिर है, जिनके पास सत्ता है उनके पास ही मास्टर-की (मास्टर कूंजी) है। यानी जब चाहे व्यवस्था में रद्दोबदल कर सकते हैं। इस पूर्वाग्रह से साहित्यों के विषय काफी प्रभावित होते हैं। दलीय व्यवस्था का खामियाजा भी शिक्षा व्यवस्था को भुगतना पड़ता है। जो दल सत्तासीन होता है, अपनी विचारधाराएं थोपता है। भाषा-साहित्य में भी तोड़-मरोड़ करने से नहीं चूकते। पूर्वाग्रहों के कारण पुस्तकों में शामिल पाठ्यक्रमों को भी हटाने से नहीं हिचकते। पुस्तकों में मुद्रित कहानियां-कविताएं-लेख तो महज भाव होते हैं। उन भावों का तात्पर्य किसी को जागृत करना होता है। निस्तेजों में तेज भरना होता है। कोई संदेश या ज्ञान देना होता है। यह तो कतई गुनाह नहीं है। मगर सियासत के धूर्त खिलाड़ी यथास्थिति बनाये रखना चाहते हैं। उनकी मंशा तो विरोध को पनपने से रोकना होती है। दमन करना होता है।
हाल-फिलहाल भी किसी पाठ्य पुस्तक से एक नामचीन शायर और नज्मकार की कोई रचना हटाने की बात सामने आयी थी। इसकी वजह महज यही थी कि वह किसी दूसरे संप्रदाय का था। इसे एक ओछी मानसिकता के सिवा और क्या कहा जा सकता है? इसी तरह विद्यार्थियों को उहापोह की स्थिति में रखा जाता है। उनके सामने स्पष्ट तस्वीर उभरने ही नहीं दी जाती है। सत्ता बदलते ही जैसे अब तो कोई भूचाल-सा आ जाता है। व्यवस्थाओं में परिवर्तन का खेल शुरू हो जाता है। उन परिवर्तनों के दायरे में शिक्षा-व्यवस्था भी आ जाती है। इसका परिणाम अधिकतर नकारात्मक ही होता है। इस संदर्भ में विशेषज्ञों द्वारा सकारात्मक तथा लाभकारी प्रस्ताव भी पेश किये जाते हैं। कई अच्छी बातें भी होती हैं जो दस्तावेज में ही दम तोड़ जाती हैं। उनपर अमल न के बराबर ही होता है।
स्वतंत्रता से पहले बर्तानिया सरकार ने लॉर्ड मेकॉले की अध्यक्षता में शिक्षा व्यवस्था के लिए एक समिति बनायी थी। समिति की सिफारिशों का तात्पर्य भारत में क्लर्कों (किरानियों) की फौज खड़ी करना था। आजादी मिलने के बाद हालांकि देश की अपनी शिक्षा-नीति बनी। संशोधन भी हुए, कुछ जोड़े भी गये। बहरहाल, कुछ रद्दोबदल के साथ वही पुराना आधार रहा। कोई भी शिक्षा नीति बनाते समय देश की सामाजिक, भौगोलिक, सांस्कृतिक पक्षों का समुचित ख्याल रखा जाना चाहिए था, जो कभी नहीं हुआ। आधुनिक शिक्षा के नाम पर कमोवेश पश्चिमी देशों की नकल ही की गयी। इसमें समानता, समरूपता के भाव नहीं दिखते। शिक्षा के क्षेत्र में राजनीति का प्रवेश घातक ही साबित हुआ है।
ताजातरीन राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 है। प्रख्यात साइंसदां कृष्णास्वामी कस्तुरीरंगन की अध्यक्षता में कस्तुरीरंगन कमिटी का गठन हुआ। कमिटी की रिपोर्ट पर आधारित शिक्षा नीति पर सरसरी निगाह डालने पर कई खामियां भी उभर कर सामने आयीं। उच्च शिक्षा के संबंध में किसी राष्ट्रीय सर्वे की रिपोर्ट अब तक प्रकाशित नहीं हुई है। हालांकि इस दिशा में कई बाधाओं को नजरंदाज कर दिया गया। गोया अवरोध जरूर खड़े किये गये। उनमें से एक कौशल विकास योजना है। अगर कौशल का ही विकास करना है तो इसे प्राथमिक कक्षा से ही समग्र शिक्षा में एक निश्चित अनुपात में शामिल करना था। रही उच्च शिक्षा की बात। संस्थान तो दिनोंदिन बढ़ रहे हैं मगर उनकी गुणवत्ता के सामने एक विशाल प्रश्नचिह्न भी खड़ा है।
इस संबंध में भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने कहा था कि देश को सहिष्णुता और विविधता के विचारों की एक फैक्ट्री की जरूरत है। शिक्षा संबंधी तमाम नीतियों और योजनाओं का लाभ उठाने में ग्रामीण और आर्थिक रूप से अक्षम लोग हमेशा पिछड़ जाते हैं। कोई भी योजना तभी फलीभूत हो सकती है जब उस तक देश के अंतिम व्यक्ति की पहुंच हो।