बिहार के नौजवानों के नाम पैगाम
तख़्त बदल दो ताज़ बदल दोज़ुल्मों का ये निज़ाम बदल दो
बिहार में, या यूँ कहें देश-भर में युवा शक्ति अन्य मुल्कों से ज़्यादा है. फिर भी हाल यह है कि वही बिखरी हुई है, दिशाहीन है, लक्ष्यहीन है. उस पर ही कहर बरपाया गया है.
आख़िर कब तक ज़ुल्म की चक्की में पिसते रहोगे, बिहार के नौजवान? कब तक रोजी-रोटी के लिए दूसरे राज्यों में शरण लेते रहोगे? दूसरे प्रांत के बाशिंदों द्वारा कब तक शर्मिंदा होते रहोगे?
नौकरियों के लिए तमाम तरह की परीक्षाएँ तो होती रहती हैं. साथ ही, तय तारीख़ से पहले "पेपर लीक" की ख़बरें उछलने लगती हैं, अमूमन. नतीजतन, परीक्षा "कैंसिल" और अभ्यर्थियों का साल बर्बाद! ऐसे ही कितने साल बर्बाद होते रहते हैं! परीक्षाएँ होती हैं, तो उनके परिणाम सुनाने में लेट-लतीफी.
सरकार के इस रवैये से असंतुष्ट उम्मीदवार अपनी जायज़ मांग को लेकर रोष-प्रदर्शन और घेराव करते हैं, तो उनको मिलती हैं लाठियाँ और गोलियाँ. व्यवस्था का यह रवैया उनके मन और मस्तिष्क को इस कदर तोड़ देती है कि वे भावशून्य हो जाते हैं. सामने घुप्प अंधेरे के सिवा और कुछ नहीं होता. रोशनी की एक हल्की किरण भी नहीं दिखती.
इस सूरत में सामने तो ख़ुदकुशी का रास्ता ही दिखता है. हालाँकि ऐसी घटनाएँ हुई भी हैं. वे अपने इस अनमोल जीवन को समाप्त करने से भी नहीं हिचकिचाते. उनकी नज़र यही सबसे आसान रास्ता लगने लगता है.
दूसरा रास्ता भी अमूमन उनको किसी अंधे कुएँ की तरफ़ ही ले जाता है. वह रास्ता होता है विध्वंस का रास्ता. व्यवस्था के ख़िलाफ़ बग़ावत का रास्ता. नतीजतन वे समाज और देश के सामने एक गंभीर चुनौती बन जाते हैं. अब व्यवस्था और सरकार उसे कुचलने में लग जाती है. कैसा दोगलापन है ये!
आख़िर उस मक़ाम तक किसने पहुँचाया इस वर्ग को? स्पष्ट तौर यही सड़ी-गली व्यवस्था और सरकार. गोया नौजवानों के सामने एक उचित और महत्वपूर्ण फ़ैसला लेने की घड़ी है यह मतदान.
लिहाजा, नौजवानों से बस यही अपील है कि वे अपने अनुभवों के मद्देनज़र अपने दिल से पूछकर ही वोट डालें. उनके सामने मौजूदा "सड़ांध" से बजबजाती "व्यवस्था" को बदलने की "गंभीर चुनौती" है. "मताधिकार" को महज औपचरिकता नहीं, एक शस्त्र बनाने की ज़रूरत आन पड़ी है.
जय हिन्द

No comments:
Post a Comment