अपेक्षाओं के झंझावात में
कातर खड़ा एक मानव,
कभी आगे तो कभी
पीछे देखता और
निर्निमेष निहारता विशाल नभ।
कहीं कोई छोर मिलने
की क्षीण आशा लिये।
अगले ही क्षण गणना
में लग जाता कि
कितनी भूलें की जीवन में।
आंखें बंद करता तो
सहस्र नयन मिलते घूरते
आशय था एक यक्ष प्रश्न
ऐसा क्या किया तुमने
जो तुम्हारा नाम लें।
पलायनवादी, कापुरुष जैसे
अलंकारों से अलंकृत किया
इसी उहापोह में बैठा खंडित
भग्न, आहत मन लिये।
आक्रमणों का वृहत भंवर
प्रताड़नाओं की बार-बार
उठतीं लहरें,विदिर्ण कर
जातीं हृदय और कर
जातीं आत्मा को आहत।
भारी कदमों पर सहसा
खड़ा होकर मानव चल
पड़ा किसी ओर,
न कोई दिशा न लक्ष्य।
कदाचित अनंत की ओर।
कभी आगे तो कभी
पीछे देखता और
निर्निमेष निहारता विशाल नभ।
कहीं कोई छोर मिलने
की क्षीण आशा लिये।
अगले ही क्षण गणना
में लग जाता कि
कितनी भूलें की जीवन में।
आंखें बंद करता तो
सहस्र नयन मिलते घूरते
आशय था एक यक्ष प्रश्न
ऐसा क्या किया तुमने
जो तुम्हारा नाम लें।
पलायनवादी, कापुरुष जैसे
अलंकारों से अलंकृत किया
इसी उहापोह में बैठा खंडित
भग्न, आहत मन लिये।
आक्रमणों का वृहत भंवर
प्रताड़नाओं की बार-बार
उठतीं लहरें,विदिर्ण कर
जातीं हृदय और कर
जातीं आत्मा को आहत।
भारी कदमों पर सहसा
खड़ा होकर मानव चल
पड़ा किसी ओर,
न कोई दिशा न लक्ष्य।
कदाचित अनंत की ओर।
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